जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
लेकिन वे दोनों प्रवल भाव से जो चाहते थे, आखिरकार वह घट ही गया। जहाज़ पर चढ़ने का वक्त आ पहुँचा। एमस्टरडम से स्टॉकहोम की दिशा में हमारा सफ़र शुरू हुआ। सच पूछे, तो स्टॉकहोम शहर के बारे में मुझे कुछ भी जानकारी नहीं थी। वह शहर, किसी भी अन्य शहर जैसा था। अगर कोई कहे कि तुम्हें अभी कुसुलुकू या कविकाइरे शहर जाना होगा, मुझे सिर हिलाकर सहमति देना होगी कि ठाक है, जाऊँगी। अपने लिए कोई देश या शहर पसंद करने की आजादी मुझे नहीं दी गयी है। अपनी पसंद से ढोंक या दूसरों की पसंद की मूर्खता और भोथरापन निगलने के अलावा मेरे पास और कोई उपाय नहीं है। जान बचाने के लिए ही सारी तैयारी की गयी है। फ़िलहाल मैं हत्यारों की पहुँच से बाहर, प्राणदायी आश्रय में आ गयी हूँ। यह वात मेरा मन शायद भूल गया था। मैंने मन-ही-मन अपने को धमकाकर याद दिलायी। स्टॉकहोम में स्टॉपेज के बाद मुझे जहाज़ के पेट से सबसे पहले निकाला गया और अलग सीढ़ी से खुले आसमान के नीचे उतार लाया गया। जिस राह आम मुसाफिर आते-जाते हैं, वह राह मेरे लिए नहीं थी। वजह यह है कि मैं कोई मामली मसाफिर नहीं हैं। इस पल दुनिया की सबसे टॉप खवर में हैं! हेडलाइन मैं हूँ!
जहाज़ के नीचे एक और आदमी खड़ा था, मेरे अभिवादन के लिए! उस आदमी ने हाथ बढ़ाकर मुझसे हाथ मिलाया और अपना नाम बताया-गैवी ग्लेइसमैन! स्वीडिश पेन क्लव का प्रेसीडेंट। जहाज़ के नीचे ही झुंड-भर पुलिस की गाड़ियाँ भी खड़ी थीं। उनमें से ही किसी एक गाड़ी में मुझे उठाकर गाड़ियाँ किसी अनजान ठिकाने की ओर दौड़ पड़ी। आगे-पीछे ढेरों गाड़ियाँ, उस वक़्त ख़तरे की घण्टी बजा रही थीं-पों-पों! मैं हतबुद्ध! इस क़िस्म का अभिवादन तो किसी बड़े-विशाल देश के राजा-रानी या राष्ट्रप्रधान अपेक्षा करते हैं। मैं ठहरी नितांत ही मामूली इंसान! अपने लिए ऐसी तैयारी देखकर मेरे मन में जाने कैसी तो दहशत फैल गयी। हवाई अड्डे में ही मुझे कहीं उतारा गया! कहाँ? यह समझना मेरी क्षमता में नहीं था। वहाँ, मार्गरटा डगलस, स्वीडन की विदेश-मंत्री मेरे स्वागत के लिए खड़ी थीं! करीब ही सैकड़ों पत्रकारों की ठसाठस भीड़! फोटो-पत्रकार हाथ में कैमरा उठाए, मेरी तरफ निशाना लगाए हुए थे। इससे पहले कि मुझे लक्ष्य करते हुए कैमरे के फ्लैश चमक उठे, बेहद स्वाभाविक भाव से ही विदेश मंत्री के होंठों पर तृप्ति की मुस्कान तैर गयी। पिछले कई महीनों से विदेश मंत्री महोदया ने मुझे वांग्लादेश से सही-सलामत स्वीडन लाने के लिए काफी मेहनत की थी। आज उनकी मेहनत सार्थक हुई। ङ आगे बढ़ गए और उन्होंने मार्गरेटा को अपना परिचय दिया। मैंने देखा, कौन मेरा छायासंगी है, कौन देश छोड़कर विदेश-सफर पर आया है, क्यों आया है ये तमाम जानकारी, मार्गरेटा की उँगली की पोरों पर है! खैर, जिस हालत में मुझे उठाकर लाया गया है, उसमें किसी न किसी को तो मेरे साथ होना ही था। उस जानकारी पर ङ ने और थोड़ी-सी जानकारी लाद दी।
ङ ने कहा, “चूंकि अंग्रेजी भाषा पर उसकी ख़ास दख़ल नहीं है, इसलिए मैं इनके साथ आया हूँ, इनकी मदद के लिए!" उन्होंने यह भी बताया, “मुझे भी भयंकर सतर्कता बरतनी पड़ी। यहाँ तक कि अपनी बीवी को, जो इन दिनों देश के बाहर थी, उसे भी मैं बताकर नहीं आया कि मैं इनके साथ जा रहा हूँ।"
मार्गरेटा के आमने-सामने मैं और ङ बैठे हुए थे, जरा-से फ़ासले पर गैबी ग्लेइसमैन! मंत्री महोदया ने कुल मिलाकर यह जानना चाहा कि राह में मुझे कोई असुविधा तो नहीं हुई। अब मुझे थकान तो नहीं लग रही है। उनके तमाम सवालों का जवाब, मेरी तरफ से ऊ ने दिया। अब, मेरी क्या योजना है, भविष्य के बारे में मैंने क्या सोचा है-इन सब सवालों का भी जवाब, कुछ ऊ ने और कुछ गैबी ने दिया । ङ यहाँ कितने दिन रहेंगे? स्वीडिश पेन क्लव की तरफ से मुझे कुर्ट टूखोलोस्की पुरस्कार किया जाएगा, उसी दिन औपचारिक तौर पर जनता के सामने मुझे प्रस्तुत किया जाएगा। यह तय हुआ कि ङ उतने दिनों तक मेरे साथ होंगे। विदेश मंत्री ने मंद-मंद मुस्कान के साथ ङ के फैसले की तारीफ की। अब मार्गरेटा ने सवाल किया कि दिन भर से प्रतीक्षारत पत्रकारों से मैं बातचीत करना चाहूँगी या नहीं। दस बारे में भी फैसला गैवी और ऊ की तरफ से ही सुना दिया गया, "नहीं, इस पल, वह पत्रकारों के किसी भी सवाल का जवाब नहीं देगी।"
मेरा खयाल है कि विदेश मंत्री ने ज़रूर यही अंदाजा लगाया होगा कि मैं असहाय-अबला औरत हूँ और मेरे तमाम सोच-विचार और कार्य, मेरे आस-पास के मर्द साथियों द्वारा ही तय किए जाते हैं। वाक्रुद्ध उत्साही पत्रकारों का दल हवाई अड्डे पर ही रह गया था। मार्गरेटा डगलस खुद उन लोगों से मुख़ाबित हुईं। मुझे पिछले रास्ते से निकालकर वाहर लाया गया, ताकि कोई मेरी छाया तक न छू पाए।
इसके बाद, गाड़ियों का काफिला, मेरी गाड़ी के आगे-आगे दौड़ पड़ा। हॉर्न बजाकर, समूचे शहर को थर्राते हुए, वे गाड़ियाँ मुझे किस तरफ ले जा रही हैं, मुझे कुछ भी पता नहीं था। मुझे काफी संकोच हो आया। सिर्फ मेरे लिए इतने लंबे-चौड़े इंतज़ाम की कोई वजह, मेरी समझ में नहीं आई। मेरी आँखें पैरिस शहर की चकाचौंध देख चुकी थी, इसलिए स्टॉकहोम शहर देखकर, मुझमें कोई विस्मय नहीं जागा। ङ की कौतूहल भरी आँखें, खिड़की से बाहर, शहर का यथासंभव नज़ारा करती रहीं। मेरे मन में ङ का एक जुमला काँटे की तरह चुभता रहा- “यहाँ तक कि मैंने अपनी पत्नी को भी नहीं बताया कि मैं इनके साथ यहाँ आया हूँ।" ऊ ने अपनी बीवी को क्यों नहीं बताया? देश से मेरे साथ स्वीडन आने का इंतज़ाम, उनके लिए किसने किया? क्यों किया? जहाँ तक मेरे कानों तक ख़बर पहुँची थी, उस तरफ से स्वीडन के राजदूत ने ही इसका इंतज़ाम किया था। स्वीडिश सरकार की तरफ से दो हवाई टिकट भेजे गए थे। यह जरूर अहम घटना थी। लेकिन ङ के लिए, अपने परिवार के घनिष्ठ लोगों से यह बात छिपाने की क्या वजह हो सकती है? ऊ ने कहीं यह तो नहीं सोच लिया कि वे मेरे साथ विलास-विहार पर आए हैं? अगर किसी को मेरे साथ आना ही था, तो मेरे अब्बू मेरे साथ होते। ढाका हवाई अड्डे पर अब्बू की असहाय-निरुपाय, खड़े रह जाने वाली तस्वीर, मेरे मन में हाहाकार करती हुई, धूल भरी आँधी बिखेर गयी थी। अंग्रेजी में साहित्य रचने जितना ज्ञान मुझे नहीं था। अंग्रेजी भाषा हमेशा से ही मेरे लिए विदेशी भाषा रही है। यह भाषा न तो मेरी मातृभाषा थी, न मेरी जुबान या बोली। इस भाषा से मैं भले ही और कोई काम लूँ, लेकिन कल्पना के घोड़े नहीं दौड़ा सकती। वैसे रोजमर्रा के ज़रूरी काम-काज मैं इस भाषा में चला सकती थी, इसमें कोई संदेह नहीं था। अगर बहुत ज़्यादा ज़रूरत पड़ी, तो दुभाषिए की व्यवस्था भी हो जाएगी। मैंने देखा, फ्रांस में बहुत कम ही लोग अंग्रेजी बोलते थे। नामी-गिरामी लोग भी बड़ी शान से घोषणा करते हैं कि वे अंग्रेजी नहीं जानते। इस बात को लेकर किसी को कोई संकोच भी नहीं होता।
ज़रूरत पड़ने पर ये लोग दुभाषिया तलब करते हैं, मगर अंग्रेजी जानने या सीखने की जरूरत नहीं महसूस करते।
जिस वक्त में इन्हीं सब ख़यालों में डूबी हुई थी, गाड़ी की अगली सीट से पीछे मुड़कर किसी पुलिस अफसर ने दरयाफ्त किया, “आप दोनों क्या एक ही मकान में ठहरेंगे?"
मैं कोई जवाब देती, इससे पहले ही ङ ने छूटते ही जवाव दे डाला, “हाँ-हाँ, बे-शक!"
मुझे आशंका हुई, पुलिस अफसर शायद यही सोच रहा होगा कि हम दोनों में ज़रूर कोई गोपन रिश्ता होगा। अचानक ङ की उपस्थिति मुझमें कोफ्त जगा गयी।
गाड़ी एक मकान के सामने रुक गयी। समूचा मकान पुलिस से भरा हुआ! गैबी ने बताया कि फ़िलहाल मुझे भी इसी मकान में रहना होगा। वह मकान किसी स्वीडिश लेखक का था। लेखक का नाम था-यान हेनरिक सुयान! ऐसे-ऐसे नाम मेरे कान तक पहुँचते ज़रूर थे, लेकिन अगले ही पल निकल भी जाते थे। चूंकि ये नाम, मेरे दिमाग तक नहीं पहुँचते, इसलिए इन्हें याद रखना संभव नहीं था। सुरक्षा-जाल बिछाकर हवाई जहाज़ के पेट से जो सूटकेस निकाल लाए गए थे, पुलिस ने बड़े इत्मीनान से वह सब उतारने का इंतजाम किया। गाड़ी से मकान!
मेरा और ङ का, दोनों सूटकेस, एक ही बेडरूम में घुसाकर गैबी ने कहा, "फ़िलहाल, यही आप लोगों का बेडरूम है।"
"आप लोगों का...मतलब?" मैं चौंक उठी।
“आप लोगों का मतलब, आप लोगों का! आपका और ङ का!!"
"मैं और ङ एक ही कमरे में क्यों रहेंगे?"
मैं स्तंभित मुद्रा में खड़ी रही। मेरे समूचे तन-मन में सवाल! गैबी, पता नहीं क्यों तो अपने होंठों की कोरों में ऐसी एक मुस्कान झुलाए रखता था, जिसका अनुवाद किया जाए, तो ही मतलब निकलता था-अप्रस्तुत और चतुर! अपने सवालों का कोई जवाब न पाकर मैंने गौर किया, मेरे कहे गए जुमलों में आक्रोश छलक उठा है।
"लेकिन, हम दोनों में ऐसा कोई रिश्ता तो नहीं है कि एक ही कमरे में रहें। देश से हम साथ-साथ आए हैं, इसलिए क्या ऐसी कोई विचित्र बात सोच लेनी होगी?"
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ